बहुत हुआ
बहुत हुआ
पाप, पुण्य और कर्म,
ये फ़साना बहुत हुआ,
गंगा में डुबकी का,
किस्सा पुराना बहुत हुआ।
अब कौन रखता है,
हिसाब अपने किये का,
अब तो किस्मत को ही,
आज़माना बहुत हुआ।
ख़ुद को ही मानते है,
ख़ुदा अब जो ये फ़कीर,
देखो इनका शर्म से,
शर्माना बहुत हुआ।
आ गढ़ दे आज कोई,
नया लफ़्ज़ इन बेहुदों के लिए,
इंसानो का इंसान,
कहलाना बहुत हुआ।
मत किया कर याद अब,
उस ज़माने के रीत को 'साहिल',
उस ज़माने को गुज़रे,
ज़माना बहुत हुआ।