काश
काश
तू फैली हुई,
इक दरिया-सी,
मैं सिमटा-सिमटा,
झील बनूँ।
तू चलती फिरती,
रस्ते-सी,
मैं पत्थर का,
इक मील बनूँ।
तू इन्साफ की,
कोर्ट-कचहरी सी
मैं सच्चाई का,
वकील बनूँ।
तू ज्ञान-विज्ञान,
की बातों-सी
मैं हर बातों का,
दलील बनूँ।
तू अनपढ़ प्रेम,
के अक्षर-सी,
मैं पढ़ा लिखा,
जाहिल बनूँ।
तू इश्क़ में,
डूबी समंदर-सी
काश मैं तेरा,
साहिल बनूँ।