STORYMIRROR

Vijay Kumar parashar "साखी"

Drama Tragedy

4  

Vijay Kumar parashar "साखी"

Drama Tragedy

"इंसान और गिरगिट"

"इंसान और गिरगिट"

1 min
470

गिरगिट भी रह गया है, बहुत ही दंग

देखकर हम इंसानी फ़ितरतो के रंग


वो तो खतरा देखकर बदलता है, रंग

इंसान मौके पर बताता है, अपना रंग


जिधर स्वार्थ उधर, खोदे इंसान, सुरंग

वो बिन स्वार्थ कभी न बजाता, मृदंग


गिरगिट को यह शिकायत है, रब से

सब लोगों तुलना क्यों करते है, उससे


कुछ हो, तू बदल रहा गिरगिट तरह, रंग

जबकि उसमें जरा भी नहीं स्वार्थ, अंश


ऐसा भी बोलने का हो सकता है, ढंग

तू इंसानों की तरह बदल रहा है, रंग


इंसान तो स्वार्थ मे हो गये, इतने अंध

तरह-तरह के चला लिए, उसने पंथ


गिरगिट कहता, छोड़ दो नाम लेना मेरा

तुम स्वार्थी इंसानों से न कोई मेरा संग


जैसा हूं, अच्छा हूं, न मुझमे स्वार्थ तरंग

स्वार्थ हेतु कभी न करूँ, अपनों से जंग


रब तेरा शुक्रिया, मुझे गिरगिट पैदा किया

खुश हूं, नहीं मुझमें इंसानी फ़ितरतो के रंग



Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Drama