भंवरा
भंवरा
कहता सांझ अंधेरों से,
तुम क्यों घबराता है।
तुमसे ज्यादा कालिख बना वो,
जो उड़कर फूलों पर जाता हैं।
तप के आंच में जिस्म जला दी,
तब उसने सुगन्धित ख़ुशबू पाई।
नहीं डरा वो चल दिया उसने, फूल खोजने,
रास्ते में कांटे मिले उसको, तब आंख भर आई।
सूर्य से तेज धूप निकले या तूफान आए,
काया को काला करके, अम्बर समझकर ओढ़ ली अपने ऊपर।
भटकता रहा इधर उधर पंख फैलाकर,
कितने कष्टों से मिली उसको, गुल खिले हसीन चेहरे पर।
कितना ही पीड़ा क्यों न हो बदन में,
अपने कर्तव्य पर तात्पर्य रहता है।
कुछ भी हो जाए मंज़िल पाने के ख्वाहिश में।
अपने पर को रवि के प्रकाश में जला देता है।
