भगत सिंह और भारत
भगत सिंह और भारत
भगतसिंह आए एक दिन देखने आज़ाद भारत को,
जिसके लिए फांसी चढ़े खुशहाल भारत को,
मन में लिए थे एक छवि सोने की चिड़ियाँ की,
हों बराबर सब जहां एक ऐसी दुनिया की।
लगता था उनको अब यहाँ खुशियाँ ही बस होंगी ,
रोता नहीं होगा कोई गरीबी कहाँ होगी,
आज़ाद होंगे सब यहाँ मन से भी बाशिंदे,
दास्ताँ की कोई भी बेड़ी कहाँ होगी।
माता कोई भी अब तो यहाँ रोती नहीं होगी,
माँ की कोख में बेटियां सोती नहीं होंगी,
न्याय अब मिलता होगा सबको बराबर का,
बहनें हाथ में लेकर के राखी ढोती नहीं होंगी।
धर्म और जाती में अब कोई लड़ता नहीं होगा,
गुलामी वाला दौर अब तो नहीं होगा,
अब तो यहाँ आवाज कोई दबती नहीं होगी,
भय से कोई भी गर्दन कभी झुकती नहीं होगी।
पर पहुँच भारत उन्होंने जो दशा देखी,
सूखा हलक मुंह से कोई आवाज ना निकली,
खड़े थे सन्न से बस देखकर सपनों के भारत को,
शर्म से गिर पड़ी मस्तक से गौरव भरी पगड़ी ।
कहीं से दर्द के स्वर से भरी कुछ चीख आती थी,
कदम बढ़ते थे जैसे चीजें आगे बढ़ती जाती थी,
कहीं पर लड़खड़ाता कोई चलता चीथड़े पहने,
अमीरी कहीं इंसनियत को रौंद जाती थी।
कहीं कुछ लूटते थे देश का ही धन लुटेरे बन,
बेचते थे देश को नहीं संकोच में था मन,
दौर अब तक भी गुलामी वाला छंटा नहीं,
जनता के मन से बंधनों का पर्दा हटा नहीं।
न्याय की आँखों में काली पट्टी बंधी देखी,
बहनें भाइयों के सामने असहाय सी बैठी,
अभी भी मर रही थी बेटियां कई जन्मा से पहले,
हवस की आग में मासूम सी जलती हुई देखी।
सपने टूटते सड़कों में एक एक गिरते जाते थे,
मन में लिए निराशा भगतसिंह बढ़ते जाते थे,
चलते हुए वो पहुँच गए उस धाम के सम्मुख ,
संसद जिसे कहते थे उस मुकाम के सम्मुख।
वहां जो दृश्य देखा तो लगा बंधक पड़ी माता,
अभिमान भी पैरों टेल रौंदा था नित जाता,
नेता जिन्हें कहते थे वे सब स्वार्थी लोभी,
दम्भ सत्ता का चढ़ा आया वहां जो भी।
सेवा कहाँ अब तो वहां बस दांव होते थे,
सियासत की बिसात पर शह मात होते थे,
लड़ते थे बाहर से सभी नेता दिखावे में,
भीतर सभी हर स्वार्थ में ही साथ होते थे।
राजनीति के इस खेल में नित हारती जनता,
तड़पते भूख में बच्चे को देख बिकती थी नित ममता,
खेत का भगवान नित आंसू बहाता था,
सूखी किसी डाल पर वो झूल जाता था।
आक्रोश में डूबे भगत सिंह देख ये हालत,
शहादत के पीछे शहीदों की ये थी नहीं चाहत ,
क्रोध आँखों में ज्वाला बनके था फूटा ,
ठाना उन्होंने फिर करेंगे विस्फोट वो बम का।
बहरे हुए जो देश में उनको सुनाना है,
भारत नहीं जायदाद उनकी ये बताना है,
गुलामी के जिस बंधन ने जकड़ी पुनः माता,
माता को आईएस बंधन से अब मुक्त कराना है।
इसी विश्वास में करने चले वो फिर से तैयारी,
विद्रोही फिर से बना वो वीर क्रन्तिकारी,
आजादी की लड़ाई शुरू थी हो गयी फिर से,
गोरों की जगह काले अंग्रेजों की थी अब बारी।
भगत सिंह ने कहा उनकी शहादत व्यर्थ थी अब तक,
झूठी है आजादी कि जनता खुश नहीं जब तक,
कितनी ही जंजीरें यहाँ अब भी गुलामी की,
सिसकती माता बनी सत्ता की अब बंधक।
आज़ाद जो अब होगी माता देश बदलेगा,
भूख से अब न कोई बच्चा भी बिलखेगा,
अब यहाँ पूरी होंगी शहीदों की सब चाहत,
इस क्रांति से बनेगा उनके सपनों का भारत।
