बगीचा
बगीचा
हर पुष्प से भरे चमन को
जिस माली ने था सींचा।
उसने न किया कोई अंतर
कितना सुंदर था बगीचा।
फिर क्यों कुछ उन्मत्त भंवरों ने
आतंक वहाँ फैलाया।
हर फूल के खिलते मुसकानों में
द्वेष का जहर मिलाया।
जो सुमन थे मुसकाते हरदम
अब अवसादों से घिरे थे।
लूटा पराग भंवरो ने अब,
अगले उपवन पे भिड़े थे।
थे कांटे जो रक्षक फूलों के
उनका साथ भी छूटा।
जब बाह्य भ्रमर ने घर मे घुसकर
उनके विश्वास को लूटा।
मैं हूँ उत्तम, मैं हूँ बेहतर
इस दंभ ने उपवन फूंका।
हर पुष्प अकेला था , अब तो
मधुबन था बिल्कुल सूखा।