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बेवफ़ाई पर...

बेवफ़ाई पर...

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एक गुंजाईश तो रही है,

तेरे लौट ना आने की उम्मीद पर,

मैं तावीज़ बन के फिरता रहा हर दर पर,

दिल के खुदा को बरबाद कर दरबदर...


मुलाकातें कहाँ अब मुमकिन रहीं,

हर शाम पर माथे पर धूँधली सी शिकन रही,

वो शमा तो जली परवाने के जनाज़े पर,

और परवाना खुद अपनी मौत से रहा बेखबर...


अब दिल का दरवाजा बंद है,

हो तो गए हैं महीने चार मगर,

पर रूक-रूक जो चलती हैं सिसकीयाँ तेरे नाम पर,

कैसे सुकुन दे पायेगा, तेरा तुझको खुदा उधर...


तू कहता तो था, तू बेवफ़ा नहीं है,

फिर कैसे बदल गया अपने हालात पर,

मैं सौ दफा तुझसे मोहब्बत गयी तो हार,

अब अपनी मेरी नफ़रत पर,

तू कैसे करेगा गुमान बता तो जरा इधर...


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