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डाॅ सरला सिंह "स्निग्धा"

Classics

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डाॅ सरला सिंह "स्निग्धा"

Classics

बेटी

बेटी

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 बेटी माँ के कलेजे का टुकड़ा,
 बार बार ये सुनती रहती हूँ।
मैं उसी कलेजे के टुकड़े को,
 तू मैया काहे को मिटा देती है।
 मैं भी तो तेरा ही अंश हूँ माता,
 फिर क्यों मैं परायी लगती हूँ।
 भैया को कहती हो कुलचिराग,
 मैं क्या अँधियारा करती हूँ ।
 दो कुल का भार वहन करती हूँ,
 दोनों कुल का मैं मान बढ़ाती हूँ।
 तब भी मैं पूरा मान नहीं पाती हूँ ,
 मैं पूरा सम्मान नहीं क्यों पाती हूँ ।
 तू भी तो धरा तक न आने देती है,
 जन्म से पूर्व ही दफन कर देती है ।
 बोलो क्या अपराध हुआ मुझसे है,
 समाज भाई समान कहाँ मानता।
 हर क्षेत्र में मैं बस पिसती रहती हूँ ,
 सबकी नजरों में खटकती रहती हूँ ।
 बेटी होना अभिशाप समान लगता ,
 हमें जब माँ मान न पूरा मिलता है ।
 समाज बने ये पुरुष प्रधान भले ही,
 हमारे सम्मान हमें लौटा दे बस ये ।
 बनी बेटियाँ वस्तु तुल्य क्यों माता ,
 कहीं थोड़ा सा हाथ तेरा भी तो है।
 सदियों से चली आ रही है कहानी ,
 बस अब तू राह बदल दे कुछ अपनी।

 डॉ. सरला सिंह ‘स्निग्धा'
दिल्ली 


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