बेटी नहीं बचाएंगें !
बेटी नहीं बचाएंगें !
बेटी नहीं बचाएंगें !
तो बहू कहाँ से लाएंगें ?
कैसे घर में किलकारियाँ खिलेंगीं !
लक्ष्मी कहाँ हम पायेंगे !
रोशनी कैसे होंगीं घर की गलियाँ !
इनसे ही दिप्त होंगीं कुलदीप।
साथ में खुशियों के गीत
हम गुनगुनाएं।
बेटी नहीं बचाएंगें तो बहू
कहाँ से हम लाएंगें।
उम्मीद की शुभदीप है बेटी।
माँ शारदे की प्रतीक है बेटी।
कभी शक्ति का अवतार बन
आतताइयों का नाश करती हैं, बेटियाँ।
प्यासी-बुझी धरती का प्यास बुझाने वाली।
सुखी बगिया में जान डालने वाली
वे बेटियाँ ही तो हैं।
कहाँ से हम उनकी
खाली जगह भर पाएंगें !
बेटी नहीं बचाएंगें !
तो बहू कहाँ से लाएंगें।
जबतक हम सोच न बदलेंगे !
समाज में समता कहाँ से लाएंगें।
कैसे डूबती नैया को हम
सुरक्षित कर पाएँगे।
बेटी नहीं बचाएंगें तो
बहू कहाँ से लाएंगें।
