ये कैसी सज़ा 'मृत्यु '
ये कैसी सज़ा 'मृत्यु '
एक दिन तो आना है, इक दिन ये आयेगी सोचा नहीं था पर
इतनी जल्दी हमें अपने आगोश में ले जायेगी।।
मृत्यु के सेज पे लेटा, जब अपनों को पास पाया।
अपने प्रियजनों का तब मैं एहसास था कर पाया।
बेजान समझ वो मुझको, कुछ पल सबने अफसोस जताया।
फिर उनकी फुसफुसाहट ने,
मुझ बेजान में जैसे उत्सुकता का एहसास फिर जगाया।
आदमी था, आखिर कुछ घड़ी पहले तक,
आशा और विलास का प्यासा था, तब तक।
फुसफुसाहट बढ़ी , मेरी उत्सुकता के संग,
काठ पर लेटे, निर्जीव काया में, इक आस फिर कुम्हलाया तब।
सोचा चलो सुनते है, चुपके से सबकी बातें,
अपनों के मन की और कुछ औरों की बातें।
फिर कुछ देर में, आत्मा जो सजीव थी, रो पड़ी इन बातों से तब।
अभी चिता भी नहीं सजी मेरी थी तब तक।
मेरी जमा पूंजी का जायजा लिया जाने लगा था हद तक।
फिर कुछ निरीह से आवाज सुनने में आई,
मेरी अर्धांगिनी थी, जो मेरे बिन, बेसुध सी करती रुलाई।
बच्चे मेरे, दुख अपना समेटे थे,
कभी मां को तो कभी दुनियादारी को संभाले थे।
प्यारा सा संसार मेरा बिखर सा गया था,
मैं तो शांत लेटा था,पर मेरे घर में कोहराम मच गया था।
फुसफुसाहट फिर हुई, कुछ उत्सुकता फिर जागी ।
किसी को कहते सुना जब अपनी कुछ बुराई।
किसी ने कहा, पता था, जब जानलेवा है यह, सारी दुनिया पर है छाई।
क्यों किया नियमों का उल्लंघन, क्यों बगैर मास्क धूम थी मचाई।
किसी ने जताया खुद का डर,
"इस निर्वाण कार्य में न सहना पढ़ जाए हमें भी करोना का कहर"।
उनकी बातों ने मेरी आत्मा को भी झंझोड़ा।
लगा पश्चाताप भी नहीं कर सकता कैसी ये सजा।
थोड़ी सी लापरवाही सुला गई काया को काठ पर मेरे भाई।
हल्के में लिया इसको, सोचा सिर्फ बुखार ही आता है।
कुछ इंद्रियों को ये बस कुछ पल के लिए सुलाता है।
दौलत भी गई, ताकत भी गई फिर कुछ दिन बीते खुशी के।
पर देखो उसी वायरस का कहर,
अचानक से इक दिन सांसे भी ले गई हक से।
मौत तो आनी है, कि आयेगी इक दिन ।
इस अंतिम सच को , हमेशा मजाक बना उड़ाया।
थोड़ी सी होशियारी और सावधानी गर मैं कर पाता,
आज बेजान नहीं काठ पर, अपितु अपनों संग खुशियों को पाता।
अपनों को यों जीते-जी मरने न छोड़ जाता।
खुद भी सजा ना पाता ,अपनों को ना रुलाता।
ये कैसी सज़ा "मृत्यु "इंसान को काठ पर है सुलाता। लोमा। .