बेचैन धरा
बेचैन धरा
धरा आज क्यों, इतनी बेचैन है।
क्या मनुष्यों के कुकर्मों की ये प्रतिशोध है।
सदा सहती माँ तुल्य ये धरती है,
क्यों अब हर पल ज्वाला और
सुनामी से भरपूर है।
भूमि अपनी पूजनीय है,
देखो ये तथ्य शायद हम भूल गए है।
हर पीड़ा को सह कर देखो,
अब धरा भी सैय्यम विहीन है।
कलि काल देखो आया है,
हर मानुष दुख को पाया है
कहीं धरा से तो कहीं गगन का है,
देखो प्रकोप छाया है,
वायू भी देखो दूषित कर,
हम ने कोहराम मचाया है।
बेचैन कर पंचतत्वो को,
ठेस उन्हें पहुंचाया है।
करनी का फल मिलता है,
कर्मा भी कहाँ रुकता है,
अब भी ना कुछ बिगड़ा है,
जब जागो तब सवेरा,
ये बात सदा ही सच्चा है।
चलो मिलजुल कर प्रण करते है
इस धरा, वायु और गगन की,
बेचैनी को कुछ कम करते है,
अपने हिस्से का प्रयास कर,
चलो ब्रमांड में कुछ सुकून करते हैं।।।
