अक्स
अक्स
अक्स को अपने देख कर, गुम हो गई थी मैं।
आईना कहीं झूठा तो नहीं, सोच में पड़ गई थी मैं।
खयाल आया कि ये अक्स मेरा है,
है मेरी ही परछाई, हूँ ये मैं ही।
अपने बदलाव को देख संभल गई थी मैं।
न जाने कितने सावन बीत गए,
उन झूलों की गिनती भी हो भूल गई थी मैं।
कितने ग्रीष्म ने मिलकर किये होंगें इतना काम,
तब जा कर हुए होंगे मेरे केश स्वेत शाम।
आज उस पल को सोच कर हस पड़ी थी मैं,
सोच कहती थी ये दौर है, इसे आना ही था एक बार,
दिल का वो बच्चा इस हकीकत को झुठलाए बार बार।
पाउडर लगा लिया, लाली भी आ गई।
केशों में फिर एक बार हिना भी समा गई।
इस मन का क्या करूं ये तो है बावरा,
बाहरी लीपा पोती से इसका न वास्ता।
कितना समझाया इसको सोच अपनी सुधार लो,
बचपन आया फिर जवानी तो लो अब बुढ़ापे का इस्तकबाल करो।
हर मौसम आता है तो जाता भी तो है।
उगता है जो सूरज, तो डूब कर,
चंद्रमा को लाता भी तो है।
कहने के लिए ये बातें, समझने के लिए अच्छी थीं।
दिल पे जो गुजरी थी, कसक फिर जो वो उठी थी।
सोचा था फिर न वक्त बर्बाद करेंगे,
खुश हम भी रहेंगें, औरों को भी रखेंगे।
क्या खोया क्या पाया, गुणांक नहीं था करना,
बीते दिनों की दुहाई न इसरार कोइ करना।
अस्क है, परछाई है, जो भी है मेरे से ही बनी है।
ये समझ गई थी मैं।
अब उस अस्क को, देख कर मुस्कुरा रही थी मैं।
फिर एक बार, आईने को झुठला रही थी मैं,
अपने बदलाव को स्वीकार कर, हसीन हो गई थी मैं,
अस्क को अपने देख कर, मुस्कुरा जो रही थी मैं।।
