तथागत की पीड़ा
तथागत की पीड़ा
रात के ग्यारह बजे थे
अपने बंद कमरे में
सोने की तैयारी में था मैं
कमरे की लाइट ऑफ की
और आया बिछावन पर
कुछ ही क्षण बीते
तभी एक गुरु गंभीर आवाज आई
" सो गये क्या ?"
चौंककर मैंने चारोंओर देखा,
सामने रखी कुर्सी पर थी
एक धुंधली सी मानव आकृति
प्रकाश के वलय में घिरी,
डर और उत्सुकता के साथ
उठने ही लगा मैं
कि तभी फिर आवाज आई
" लेटे रहो
थक गये होगे
कितनी बधाइयां मिलीं
बुद्ध पूर्णिमा की ?"
रहा नहीं गया मुझसे
पूछ बैठा उनसे
" आप कौन ?"
मंदिर की घंटियों जैसी
खनकती पवित्र ध्वनि में जवाब आया
" मैं तथागत !
तुमसे मिलने आया हूँ
कुछ सुनने, कुछ सुनाने आया हूँ
बहुत दिनों से सोच रहा था,
खोज रहा था,
एक धर्म निरपेक्ष मनुष्य
जिसे अपनी पीड़ा कह सकूँ,
नहीं मिला एक भी प्राणी
इस धर्म निरपेक्ष देश में
जो पूर्वाग्रह से मुक्त हो,
आज इधर से गुजर रहा था,
तो सोचा तुम्ही सही
कुछ तो समझोगे
मेरी व्यथा, मेरा कष्ट,
आखिर लेखक हो ना तुम !"
बात में छुपे व्यंग्य को समझा मैं
पर समझ न पाया
उनका निहितार्थ,
कुछ उलझन सी थी,
बुद्ध और पीड़ा !
तथागत और वेदना !
जो संसार को कष्टमुक्त करने आया था
वह स्वयं कष्ट में !
जिसने मार्ग बताया
छुटकारा पाने का
जन्म-मृत्यु के बंधन से
वह स्वयं मेरे सामने
इस रूप में, साक्षात,
यह कैसा विरोधाभास !
पर वे तो तथागत ठहरे,
समझ गये मेरे मन की बात,
कहने लगे मुझसे
उसी चिरपरिचित
उदास मुस्कान के साथ।
"भंते !
जानता हूँ मैं
आनंद नहीं हो तुम
पर मैं बुद्ध हूँ
और यह आखरी है
मेरा उपदेश
बल्कि यूँ कह लो
प्रवचन है मेरा
असंतुष्टि से उपजी
मेरी मनोव्यथा है ये
चुप रहा मैं सब देखता
सदियों से
अपने शरीर त्याग के बाद
आगे भी चुप ही रहूँगा
आज के बाद"
और मैं अपलक देखता
चुपचाप सुनता रहा
उद्वेलित तथागत को ।
"जानते हो कि धर्म क्या है ?
जिसे धारण किया जा सके
जिसे आचरण में उतारा जा सके
जो मार्गदर्शन करे मनुष्य का
जीवन जीने के पथ पर
वह है धर्म !
पर वह तो अनादि है
शाश्वत और सनातन है
सर्वदा समाज के हित में है
लेकिन समय के प्रवाह में
परिवर्तनों के प्रभाव में
जब पंकिल हो जाता है
धर्मपथ,
अवरुद्ध होने लगती है
मानवता की धारा,
ठहरे हुए जल की तरह
दुर्गंध युक्त हो जाता है
सामाजिक परिवेश,
और जमने लगता है
अंधविश्वासों
मिथ्या आडंबरों का तलछट,
तब आवश्यकता होती है
शुद्धीकरण की
कुरीतियों का पंक निकालकर
निर्मल कर देने की
धर्म की कल कल करती धारा को,
यही किया भी था मैंने
यही कर सकता था
कोई नया धर्म नहीं चलाया
कैसे चलाता
चला भी नहीं सकता था
क्योंकि धर्म तो सनातन है
अनादि और शाश्वत है"