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AJAY AMITABH SUMAN

Classics

3.4  

AJAY AMITABH SUMAN

Classics

दुर्योधन कब मिट पाया:भाग-10

दुर्योधन कब मिट पाया:भाग-10

2 mins
345


किसी मनुज में अकारण अभिमान यूँ हीं न जलता है,

तुम जैसा वृक्ष लगाते हो वैसा हीं तो फल फलता है ।  

कभी चमेली की कलियों पे मिर्ची ना तीखी आती है ,

सुगंध चमेली का गहना वो इसका हीं फल पाती है।


जो बाल्यकाल में भ्राता को विष देने का साहस करता,

कि लाक्षागृह में धर्म राज जल जाएं दु:साहस करता।

जो हास न समझ सके और परिहास का ज्ञान नहीं,

भाभी के परिहासों से चोटिल होता अभिमान कहीं ?


दुर्योधन की मति मारी थी न इतना भी विश्वास किया,

वो हर लेगा गिरधारी को असफल किंतु प्रयास किया।

ये बात सत्य है श्रीकृष्ण को कोई हर सकता था क्या ?

पर बात तथ्य है दु:साहस ये दुर्योधन कर सकता था।


कहीं उपस्थित वसु देव और कहीं उपस्थित देव यक्ष,

सुर असुर भी नर पिशाच भी माधव में होते प्रत्यक्ष।

एक भुजा में पार्थ उपस्थित दूजे में सुशोभित हलधर, 

भीम,नकुल,सहदेव,युधिष्ठिर नानादि आयुध गदा धर।


रिपु भंजक की उष्ण नासिका से उद्भट सी श्वांस चले,

अति कुपित हो अति वेग से माधव मुख अट्टहास फले।

उनमें स्थित थे महादेव ब्रह्मा विष्णु क्षीर सागर भी, 

क्या सलिला क्या जलधि जलधर चंद्रदेव दिवाकर भी। 


देदीप्यमान उन हाथों में शारंग शरासन, गदा, शंख, 

चक्र खडग नंदक चमके जैसे विषधर का तीक्ष्ण डंक।

रुद्र प्रचंड थे केशव में, केशव में दृष्टित नाग पाल,

आदित्य सूर्य और इन्द्रदेव भी दृष्टित सारे लोकपाल।


परिषद कम्पित थर्रथर्रथर्र नभतक जो कुछ दिखता था,

अस्त्र वस्त्र या शाश्त्र शस्त्र हो ना केशव से छिपता था।

धूमकेतु भी ग्रह नक्षत्र और सूरज तारे रचते थे,

जल थल सकल चपल अचल भी यदुनन्दन में बसते थे।


कहीं प्रतिष्ठित सूर्य पुत्र अश्विनी अश्व धारण करके,

दीखते ऐसे कृष्ण मुरारी सकल विश्व हारण करते।

रोम कूप से बिजली कड़के गर्जन करता विष भुजंग,

दुर्योधन ना सह पाता था देख रूप गिरिधर प्रचंड ? 


कभी ब्रज वल्लभ के हाथों से अभिनुतन सृष्टि रचती,

कभी प्रेम पुष्प की वर्षा होती बागों में कलियां खिलती।

कहीं आनन से अग्नि वर्षा फलित हो रहा था संहार,

कहीं हृदय से सृजन करते थे इस जग के पालन हार।


जब वक्र दॄष्टि कर देते थे संसार उधर जल पड़ता था,

वो अक्र वृष्टि कर देते थे संहार उधर फल पड़ता था।

स्वासों का आना जाना सब जीवन प्राणों का आधार,

सबमें व्याप्त दिखे केशव हरिकी हीं लीलामय संसार।


परिषद कम्पित थर्रथर्रथर्र नभतक जो कुछ दिखता था,

अस्त्र वस्त्र या शाश्त्र शस्त्र हो ना केशव से छिपता था।

धूमकेतु भी ग्रह नक्षत्र भी सूरज तारे रचते थे,

जल थल सकल चपल अचल भी यदुनन्दन में बसते थे।


सृजन तांडव का नृत्य दृश्य माधव में हीं सबने देखा,

क्या सृष्टि का जन्म चक्र क्या मृत्यु का लेखा जोखा।

हरि में दृष्टित थी पृथा हरी हरि ने खुद में आकाश लिया,

जो दिखता था था स्वप्नवत पर सबने हीं विश्वास किया।


देख विश्वरूप श्री कृष्ण का किंचित क्षण को घबराए,

पर वो भी क्या दुर्योधन जो नीति धर्म युक्त हो पाए।

लौट चले फिर श्री कृष्ण करके दुर्योधन सावधान,

जो लिखा भाग्य में होने को ये युद्ध हरेगा महा प्राण।


बंदी करने को इक्छुक था हरि पर क्या निर्देश फले ?

जो दुनिया को रचते रहते उनपे क्या आदेश फले ?

ये बात सत्य है प्रभु कृष्ण दुर्योधन से छल करते थे,

षडयंत्र रचा करता आजीवन वैसा हीं फल रचते थे।


ऐसा कौन सा पापी था जिसको हरि ने था छला नहीं,

और कौन था पूण्य जीव जो श्री हरि से था फला नहीं।

शीश पास जब पार्थ पड़े था दुर्योधन नयनों के आगे,

श्रीकृष्ण ने बदली करवट छल से पड़े पार्थ के आगे।


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