सागर अब बोल पड़ा है
सागर अब बोल पड़ा है
मैं सागर हूँ, पुण्य, पवित्र
जल का एक अथाह सोत्र
धरती के कण कण में, हूँ मैं बसा
मुझसे ही है यह सृष्टि ज़िंदा
सोत्र हूँ हर बरसती बूंद का
समा जाता है मुझमें प्रवाह नदियों का
हर जीव का जीवन
मुझसे ही है जुड़ा
मेरे बगैर किसी का
व्यक्तित्व है कहाँ
जीवनदायक हूँ
हवाओं का रुख मैं ही बदलता हूँ
शांत हो मेरा वक्षस्थल
जीवन रूपी प्रवाह को संभालता हूँ
ऐसा नही वेदना मेरी
कभी बढ़ती नही
वेदना में विक्राल रूप
धारण जब करता हूँ
तब न मुझे कोई रोक सकता है
उस पल में खुद से भी हारता हूँ
पशु पक्षी हो या हो मानव
देता आया हूँ अनादिकाल से
बदले में कभी न हुआ मानव
परेशान मेरे तड़पते हाल से
अपने वक्षस्थल के झूले में
झुलाता आया हूँ सदियों से
छोटे बड़े प्राणी को
आज तड़प रहा हूँ मैं
पर कोई नही समझ पाया है
मेरे अंतर्मन की वाणी को
सपने मैने साक्षात्कार
किये तुम सबके
आज मेरे आंसू मिल गए
मेरे ही अपने पानी में
मग़रूर हो चुका है मानव
मेरी वेदना न सुन पा रहा है
करूप हुआ है रूप मेरा
और वह अलग ही धुन में जी रहा है
पर बहुत हो चुका ,अब सुन मानव
आज मैं तुझे चेता रहा हूँ
न आक्रोश बड़ा मेरा
मैं अपने आँसों पीता आ रहा हूँ
दम घुट रहा है मेरे भीतर के जन जीवों का
सदियों से मैं जिन्हें पालता आ रहा हूँ
तू बदल दे अपनी जीवनशैली
वरना धरती को निंगल जाऊंगा
अनगिनत सदियों पहले वाला रूप
फिर से धारण कर जाऊंगा
धरती पर शेष न बचा था कुछ
सिवाय मेरे पानी के
जीवन विलुफ्त हो चुका था
धरती के कण कण से
फिर ईश्वर ने दोबारा से आज्ञा दी
धरती को चलो फिर से बसाने की
फिर से जन जीवन, फूल पत्तियों से
सृष्टि का कोना कोना महकाने की
जीवन शरू हुआ था बस एक कोशिका से
तेरा रूप ईश्वर का आखिरी अजूबा था
सब जीव जनों को छोड़ कर तेरे मुख में वाणी
और दिमाग को बुद्धि से नवाज़ा था
सोचा था तुझे बना के उद्धार सबका होगा
पर नही जानता था परमात्मा , देगा तू धोखा
बहुत रो रहा है तुझे बनाने वाला
उसकी ही बनाई हुई सृष्टि को तूने रौंद डाला
तेरा आगमन बहुत देर से हुआ इस धरती पर
मैं तब से हूँ जब से जीवन धरती पर शरू हुआ
तेरा नही धरती से मेरा है गहरा नाता
जो ए मानव तू समझ नही है पाता
जीवन अनादिकाल से झुडा है मेरा
इस ग्रह का स्वामी मैं ही था सदा
हर जीवन का सूत्रदार मैं हूँ, मैं था
जो दिया है अब तक , वापिस ले सकता हूँ
अपने एक विशाल प्रवाह से धरती को
अपनी आगोश में भर सकता हूँ
है मानव अब भी समय है बाकी
मुझे लौटा दे आत्मसम्मान मेरा
मत कर अब छलनी सीना मेरा
मैं सूत्रदार हूँ ध्यान रख मेरा
आंखों से गरूर का पर्दा हटा दे
अनगिनत जल जीवों की सांसें
उन्हें अब तू लौटा दे
तू लालसा, अड़ियलपन छोड़
खुद भी चल ईश्वरीय पथ पर
चलो संभाल लेते हैं इस सृष्टि को
चलते है सफर पर मानवता के रथ पर.........