बेघर बच्चे
बेघर बच्चे
सुबह की बेला, शहर के समीप
देखा इक अचंभित वाकया,
कच्ची उम्र के बच्चों कि टोली ,
बिखरे धुने बालों वाले ,मेले चिथरे कपड़े पहने
पीठ के बल इक बड़ा पालीथीन का थैला लिए ,
पालीथीन ,करकटो को बीनते जा रहें हैं?
देखता रहा कुछ छण तक ठहर कर ,
उन मासूमो कि विवशताओं को ।
जिन्हें चिंतामुक्त हो बचपन जीना था,
जिन्हें किसी स्कूल में होना था ,
जिन्हें ख्वाब भविष्य का संजोना था ,
जिन्हें नादानी में खोना था ,
उन्हें इक रोटी को तरसते देखा ।
भुख के जवालाकुन्ड में जलते देखा ।
नम आँखों कि वजह देखी ।
जीन्दगी-मौत की सुलह देखी ।
बचपन के उम्र की जवानी देखी ।
देखा वो सारे प्रश्नों को ,
जिन्हें मन स्वीकार नहीं करता ।
कल्पना समझ किसी कहानीकार का ,
जिनपे कोई विचार नहीं करता ।
देखा हालात आजाद भारत का
इक छोटे से पल के दृश्य में ।