बेबस हिंदी
बेबस हिंदी
सुबक रही थी एक नारी
वो थी मातृभाषा हिंदी प्यारी,
दिख रही थी आज बेबस बेचारी
अपनों की उपेक्षा से थी हारी,
पूछ रहा था उसकी लाचारी
क्यों सिमट रही जग में तूँ प्यारी,
सुनायी उसने फिर अपनी व्यथा सारी
परायी भाषा मुझ पर हो गयी भारी,
गले लगा रहे सब नर-नारी
मुझे बता रहे पुरानी बीमारी,
दायरे में समेटने की
हो चुकी पूरी तैयारी,
हिंदी-दिवस मना रही
अंग्रेजी मानसिकता सारी।