बालमन
बालमन
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उधेड़ रहा था
अंतर्मन की परतें
बालदिवस के रोज,
देखा तो अंदर हो गयी
बालमन की खोज,
हुई फिर जिज्ञासा
पूछा उससे,
क्यों नहीं करता
अब तू मौज,
सुनकर मेरी बात बालमन ने
उतार डाला अपना बोझ,
सयानेपन की स्याही ने
खतम किया मेरा ओज,
हँसी-ठिठोली को तजकर
दिया खुद ही गम्भीरता का रोग,
देखकर बालमन की पीड़ा
लिया फिर संकल्प
उस रोज,
नटखट नादानियों का
देना होगा,
बालमन को डोज।
