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डॉ.निशा नंदिनी भारतीय

Drama

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डॉ.निशा नंदिनी भारतीय

Drama

बचपन की हरी घास

बचपन की हरी घास

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बचपन में 

बगीचे में उगती थी 

दुबा वाली हरी घास

माँ कहती लाडो 

ठाकुर जी के लिए 

दुबा और लाल फूल तोड़ ला।


और मैं झट से बगीचे में जा

चुन चुन कर दुबा तोड़ती

सदाबहार के गुलाबी 

और गुड़हल के लाल फूल 

ठाकुर जी पास रख कर

दो कर जोड़ खुश होती।


माँ गणपति को बड़े प्रेम से           

अर्पित करती दुबा 

एक रोज पूछ बैठी माँ से 

माँ गणपति दुबा क्यों खाते हैं

तू तो मोदक खिलाती है 

कह दिया माँ ने भोले पन में 

गणपति को दुबा अच्छी लगती है।


फिर क्या था 

दुबा तोड़ते तोड़ते 

न जाने कितनी दुबा चबाती

और थूक देती 

मिठास का वो अहसास 

आज भी मन को आह्लादित कर देता है

दुबा को खोजने और 

माँ को ढूंढने लगता है।


पर आज न वो भोली सी माँ है 

न ठाकुर का भोजन बिछावन  

और न वह दुबा का बगीचा

कंकरीट की दुनिया में 

सब कुछ पत्थर का हो गया है 

मकान तो बहुत हैं 

लेकिन.... 

घर तो इक्का दुक्का ही                   

रह गए हैं।


अब कौन कहेगा 

तुलसी माँ को प्रणाम करके छूना

पेड़ से क्षमा मांग कर 

फूल को तोड़ना

प्यारी गौरैया को 

अपने हाथ से दाना दे देना 

पहली रोटी गाय की

और आखिरी कुत्ते की बनाना

यह पक्षी ईश्वर के दूत है 

इन्हें कभी मत सताना।


चींटियों को मत मार

आटा डाल दे 

अपनी राह चली जायेंगी 

कबूतर को मचान से मत उड़ाना                                    

दाना दे देना 

आशीर्वाद देकर जायेंगे।


रोज सूरज चाँद को हाथ जोड़

अर्घ देना

चलो अच्छा है 

यह इक्कीसवीं सदी की दुनिया 

न देखी माँ ने 

वरना,                                        

वह सदी बदल देती 

या स्वयं बदल जाती 

या जीते जी मर जाती।


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