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बचपन के दिन

बचपन के दिन

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रचनाकार सखी प्रतियोगिता


बहुत याद आते हैं

वे दिन

उमंगों से भरे


सुबह की उजली धूप में

छत पर सोये रहना

छाँव की तरफ

बस पलटते रहना


वो माँ के हाथ की पहली छाँव

बैठे ठाले होते सारे काम

बहुत याद आते है

बचपन के वो दिन


भाई बहनों के साथ

बेफ्रिकी से खेलना

न जर्म थे न गन्दगी

न माँ डिटाल से हाथ धूलाती थी


वो लाल रंग की लाईफबाय

किटाणु पता नहीं कहाँ जाते थे

बहुत याद आते है

बचपन के वो दिन


न स्कूल की टैक्सी थी

न पैरों के दर्द की चिन्ता

न स्कूल बैग भारी थे

न सिलेबस हर साल जारी थे


न परीक्षाओं का बोझ था

न मम्मी पापा को डर था

न टीचर हमें मारने से डरती थी

बहुत याद आते हैं

बचपन के वे दिन


पड़ोस में बेधड़क जाया करते थे

कोई अंकल हमें न सताया करते थे

न किडनेपिगं का डर था

न रेप का कोई घर था


सब बच्चियाँ, बेटियाँ होती थीं

सांझी सबकी बुआ होती थीं

बीत गई अब सारी बातें

अब तो बस याद आते हैं

बचपन के वो दिन।।


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