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दिल की कलम

दिल की कलम

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आज कुछ यूँ ना सो पाया हूँ मैं

जिंदगी की उठापटक से लड़खड़ाया हूँ मैं

आज एक बच्चे को कूड़ा बीनते देख आया हूँ मैं

आज कुछ यूँ ...


ढूंढ रहा था कुछ पल की खुशी

पर मुरझा रखी थी उसके चेहरे की हँसी

उस नन्हे से चेहरे को ना भूल पाया हूँ मैं

आज कुछ यूँ ..


कहाँ घूम रहा था बचपन उसका ग़रीबी के लिबास में

सोच कर भी ना लगा पाया हिसाब मैं

क्या मजबूरी है उसकी ना समझ पाया हूँ मैं

आज कुछ यूँ ...


क्या मिलेगा उसे खो कर कूड़े में बचपन

क्या चाह नहीं उसकी की वो भी हो संपन्न

उसकी हथेली की रेखाओं को ना देख पाया हूँ मैं

आज कुछ यूँ ना सो पाया हूँ मैं

आज एक बच्चे को कूड़ा बीनते देख आया हूँ मैं


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