न जाने फिर नसीब हो न हो ये दिन
न जाने फिर नसीब हो न हो ये दिन
स्कूल का वो पहला दिन मुझे आज भी याद है,
गले में बॉटल टांगे,
पीछे बस्ता लटकाया,
भोली सी शक्ल लेके,
कक्षा में जाने का इंतज़ार कर रहे थे ।
कुछ रो रहे थे,
कुछ हँस रहे थे,
आधे न जाने कहाँ गुम थे,
कई सवाल उमड़ रहे थे,
नए चेहरे दिख रहे थे,
और हम अपनी मासूमियत भरी ज़िन्दगी जी रहे थे ।
कुछ देर बाद हम कक्षा में गए,
फिर शुरू हुआ सबसे मुश्किल काम,
फिर सोचने लगे कहाँ बैठेंगे,
और उड़ गए हमारे प्राण ।
मैंने जाके पकड़ी एक कोने वाली सीट,
जिसके एक ओर थी खिड़की,
देखने लगा उस खिड़की से सपनो की दुनियाँ,
जिसने थामी उस नन्हें बच्चे की,
सोच की पतंग की डोरी ।
कुछ देर बाहर देखता रहा,
अपने सपनो की पतंग उड़ाता रहा,
फिर जब ध्यान आया,
तो लगा जैसे में अपने आप को किसी ओर ही दुनियाँ में ले आया ।
शोर-गुल ,
कोहराम सा कुछ मचा हुआ था,
कोई पेपर तो कोई पानी से खेल रहा थ
ा,
पता नहीं सब क्या चल रहा था,
पर यही ज़िन्दगी का सबसे हसीं लम्हा होने वाला था ।
कुछ देर बाद,
एक अध्यापिका आई हमारी कक्षा में,
सीधे आके बोली,
वो कौन बच्चा बैठा है कोने में,
कक्षा में अब कुछ चुप्पी सी थी,
अब सबकी निग़ाहें मेरी ओर ही थी,
सहम गया था मैं तो अंदर से,
लग रहा था जैसे किसी अपराध की सज़ा मिलने वाली थी ।
कुछ क्षण अध्यापिका रुकी,
फिर उन्होंने पूछा मेरा नाम था,
अब तो पक्का यकीं हो चूका था,
अब मेरा काम तमाम था ।
जुटाई हिम्मत और बतया उन्हें मेरा नाम था,
वे कुछ क्षण रुके,
और फिर जोर से हँस दिए और बताया,
गलत कक्षा में मैंने लिया अपना स्थान था ।
बस इतना सुनते सब बच्चे हँस दिए,
में भी ढीठ था ,
उनके साथ मैं भी हँस दिया ।
कई बेहतरीन लम्हो मे से एक है ये,
मेरी स्कूल का पहला दिन,
याद रखूँगा इसे ज़िन्दगी भर,
न जाने फिर नसीब हो न हो ये दिन ।