बैठे हैं
बैठे हैं
तेरी चाहतों का ताज़,
सर पर सजाए बैठे हैं,
हम आंसुओं को घोलकर,
मदिरा बनाए बैठे हैं।
वो कहते हैं हमें भूल जाओ,
हम तुम्हें भूल गए,
तो पलकों में आँसू,
किसके लिए दबाए बैठे हैं?
क्यों न हों उनके दामन में खुशियां इतनी,
जब वो चैन-ओ-सुकूं,
हमारा ही चुराए बैठे हैं।
गले लगाकर हम खुशियाँ किससे बांटे अपनी,
यहाँ तो अपने ही, अपनों को जलाए बैठे हैं।
सोचता हूँ तराजू में कभी ईमान तौलू अपना,
हम ज़र्रे-ज़र्रे से ईमान की शर्त लगाए बैठे हैं।
भगवान से दुआ में क्यों प्यार मैं माँगू,
भगवान तो ख़ुद हाथ में हथियार उठाए बैठे हैं।
आज ले लें क्या तज़ुर्बा, हवाओं में उड़ने का,
एक लम्हा गुज़र गया, यूं हीं पंख दबाए बैठे हैं।
मोहब्बत काटों से शुरू कर दी हमने,
जबसे सुना लोग फूलों से चोट खाए बैठे हैं।
बढ़ गई जहाँ में इतनी, हैवानियत मुसलसल,
कि अब परिंदे भी डर से दामन छुपाए बैठे हैं।
क्यों उनके नाम के दिए जलाता है 'फरीदी',
वो तो शमशानों के चराग़ बुझाए बैठे हैं।

