बैलूनवाला
बैलूनवाला
वह जो
रंग - बिरंगे बैलूनों को
बाँधे हुए अपने डंडे में
समय से पहले ही
बचपन को अलविदा कह
कैशोर्य का दामन थाम चुका है
किशोर नहीं, युवा है।
जिसके सर एक वृद्ध पिता की
आठवीं संतान होने का दायित्व,
बीमारी माता की, बहनों के ब्याह
भाइयों के तकरार का बोझ है।
साथ ही झोपड़ी टूटी-फूटी
मालिक की उल्टी खोपड़ी
और पाई-पाई जोड़
भोजन कमाने का भार है।
उसकी इस सतरंगी दुनिया के भीतर
काले पैबंद अनेक हैं
लाल, हरे, नीले, पीले
बैलूनों को बाँटता
चंद सिक्कों के बदले चिंचियाता
धुंधली सर्द रातों में भी वह
ठिठुरते हुए
अपनी रोटी खोज रहा होता है ।
बैलून के चटख रंगों का
मोहताज नहीं वह
बेरंगे जीवन में
सादी, आथी अधजली रोटी से ही
चेहरे पर उसके
रंगों के इद्रंथनुष खिल उठते हैं।