बाज़ार
बाज़ार
सज़ा है बाज़ार पर खरीदार नहीं है,
गुजरते हैं वो तो होती हैं सरगोशियां,
पर अफ़सोस है हमें कुछ यूं,
गुजरता हर शख़्स हमारा तलबगार नहीं है।
यह तो मंडी है हुस्न के बहार की,
यहां बासी गुलों की कोई बिसात नहीं है,
ये दुनिया है जवां रातों की,
ढलती जवानी की यहां औकात नहीं है।
हम उतने ही हैं खूबसूरत मगर,
या ख़ुदा अब उनको एतबार नहीं है,
जिस्म के हैं तो लाखों दीवाने पर,
रुह को देखें कोई उतने समझदार नहीं है।
समझायें जिस्म और रूह का फर्क,
इस दुनिया को अब हमारे वो हालात नहीं हैं,
सुर्खी, लाली में जिस्म अभी भी है गर्क,
पर लोग कहते हैं अब तुममें वो बात नहीं है।
रातें लाती है कइयों के सुहाग भी,
पर इन रातों में हमारी सुहागरात नहीं है,
गुजरी है यहां से कई बारातें भी,
पर उनमें बस एक हमारी ही बारात नहीं है।
नहीं है कोई तुम सा दिलबर शातिर,
वरना पसंद तो हमें भी ये कारोबार नहीं है,
बैठे हैं हम भी पापी पेट की ख़ातिर,
नहीं तो जहां में हम सा कोई खुद्दार नहीं है।
कभी आओ "प्रखर" पूछने हमारी भी खैरियत,
माना हमारी गलियां तुम्हारी जितनी पाक नहीं है,
गर लिख सको तुम्हारी बेदाग दुनिया की हकीक़त,
तो उनके दागों का सारा हिसाब किताब यहीं है।