बाद तुम्हारे
बाद तुम्हारे
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तुम्हारी सोच से वाकिफ़ हूँ
मेरे पहले भी ओर मेरे बाद भी
बहुत कुछ आता है
पर मेरा क्या ?
सोच की सीमा ने थका दिया
पैरों से आसमान कुचल दूँ
या नौंच लूँ चाँद तारें
या शब्दों को ओढ़कर सो जाऊँ।
मेरी सोच के सिरे उलझ रहे हैं
पागल कर रहे है मुझे
हर तरफ़ से घूम फिर कर
वापस तुम तक पहुँचाती है हर शै।
एक के बाद आता है दो,
दो के बाद तीन,
ये गिनती तो अनन्त है
वक्त के साथ
हर कुछ के बाद कुछ आता ही है।
पर सुनो
समझ नहीं आया कि
बाद तुम्हारे क्या आता है।