बाबा, जनने क्यों दिया कोख से
बाबा, जनने क्यों दिया कोख से
बाबा, जनने क्यो दिया कोख से
रोक लेते न,
जब समाज ने रोका था पैदा
करने एक और बोझ को,
देखो न कल की बात है,
मेरी सहेली,
हाँ वही जिसके साथ खेलती थी मैं,
घर-घर, मिट्टी की बर्तन और
गुडडा-गुडिया की कहानी,
पता नहीं क्यों,
आज लाश है बनी,
अर्ध नगन तन, खुन सने लिबास,
मासूम से हुई अनहोनी की आभास,
बिलख रही थी काकी,
रोते कोस रही थी,
सुना बोल रही थी 'दरिंदे' और कई कुछ,
बेसुध पड़े थे काका खो कर सबकुछ,
तीन साल की थी वो, भागने में सबसे तेज,
पता नहीं,
कदम पड़े छोटे, या छोटी पड़ी सोच,
भाग न पायी पाई वो दरिंदगी की खाई से,
हसमुख चेहरा सूजा था, मौत के गले समाई वो !
और हाँ,
आए थे वो पुलिस वाले अंकल,
पकड़ ले गए उन्हे,
अरे वही अंकल जिसने दी थी
मुझे ये नयी वाली गुडिया रानी...
बाबा,
क्या हवस कुछ यूं समाई है,
जिसने पीर तक भुलाई हैं,
इंद्रधनुष के सात रंग देखे हैं मैंने,
पर ये किस रंगसाज़ की रंगसाजी है,
जिसनें जिस्म की भूख और
आत्मा को खोखली बनाई है !
बाबा, पता हैं!
अब मैं तिसरी में हूँ
आप न बेकार ड़ाटते हो !
मैं तो गई थी स्कूल,
साथ न थी मेरी सहेली,
हफ्ते भर से दिखी नहीं,
काका-काकी दोनों परेशान थे
काट चुके थाने के चक्कर कई,
पर खोज-खबर से अनजान थे,
आज शाम मिली दरिया किनारे
लाश, छत-विछत
लथ-पथ थी खून से,
चोट लगी थी कई जगह,
और जानते हो !
फिर से आई थी आई थी पुलिस,
फिर ले गईं कुछ को पकड़ !
कुछ दिन तक जली मोमबत्तियों
चौक चौराहे पर, फिर पिघल गई,
बर्फ रूपी आक्रोष वक़्त की धूप में,
कुछ झोलाछाप नेता भी दिखे,
दिखावे के रौद्र रूप में !
बाबा,
माँ तो भोली थी, समझ तो थी न
आपको दुनियादारी की,
गर बच भी गया इन वेहसी दरिन्दों से,
एक दिन लग जाऊंगा हत्थे किसी व्यापारी के,
कीमत तय हो जाएगी मेरी,
देखों न अजीब सी बात है न,
धरोहर आपकी,
कीमत वो तय करते !
बाबा, अब तो बीस की हूं,
दायरे तय हैं मेरे, ऐसे क्यों?
भैया घुमे रात भर
मैं न करूं सात पार !
ठीक है, चिंतित हो माना,
बेटी के पिता हो, ये भी है समाज का ताना,
हमारी आजादी पर सवाल क्यों है,
हम आत्मनिर्भर, इसपे बवाल क्यों है,
पंख खोल जो की हिम्मत एक ने,
कई लगे हवस की आंखें सेकने,
नोंच लिए पंख, खरोंच लिए अंग,
बीच सड़क फेंक दिया नग्न,
हैवानियत का रावण भी सहमा था,
दरिंदगी की हद कुछ यूं पार थी,
इंसानियत तार-तार थी,
दिन इतवार था,
सड़क पे भीड़ थी,
पर मदद को कोई न तैयार था,
निर्भय लड़ी वो, निर्भया कहलायी,
जुझी जख्मों से, हौसला तनिक न डगमगाई
हार गई जिंदगी, जिंदगी से लडाई में,
मैंने खोई सखा, काका-काकी ने बेटी
पर बदलेगी क्या हमारे भाग्य की सलेटी !
बाबा,
काश मैं होती घर का चिराग,
भैया होते घर की इज्जत,
आज होती मेरी सहेलियां जीवित,
आज न होती हमारी उड़ाने सीमित,
बाबा छोड़ो न,
और क्या ही सवालात करूं,
बेटी के पिता हो,
सामाजिक बोझ ये सर पर बड़ा भारी,
करूं मिन्नत, दुआ और फरियाद,
रब अगले जन्म जने न मुझे नारी !