औरत
औरत
कुछ भी कह लो साक़ी, बिना औरत के
आदमी नहीं बांध सकता है पायजामे का नाड़ा,
औरत के पेट में बिना किराये के नौ माह रहता है
फिर भी बच्चे को नाम अपना ही देता है।
ऐसा क्यों होता है साक़ी, देने वाला रोता है,
अपने आँसुओं को वो खोता है।
कुछ न करने वाला आदमी मज़े से सोता है,
अपने आँसुओं को मोती समझ वो नहीं रोता है।
औरत को पैर की जूती समझी जाती है
जबकि हकीकत ये है बिना औरत के
आदमी का जन्म तक नहीं होता है।
औरत ही माँ है, औरत ही पत्नी है,
औरत ही सच्ची दोस्त व बहन है।
सब रिश्तों का औरत से ही सीधा सम्बंध होता है,
फिर क्यों नहीं समझती है ये दुनिया।
औरतों पर क्यों अत्याचार करती है ये दुनिया,
बिना औरत के तो खुदा का रूप दुनिया में नहीं होता है।
औरत से ही हर अवतार पैग़म्बर का जन्म होता है,
इसलिए कहता है विजय ये अमानत है
ख़ुदा की, इसे सम्भालकर रख साक़ी ।
बिना इसके हर शख़्स का कोई वजूद नहीं होता है।।
