औरत एक सौनामी
औरत एक सौनामी
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औरत एक सौनामी है।
जन्म लिया अंधेरी गुफ़ा में,
आते ही ज़माने की चकाकोंध में,
सुनने लगी, पराएं घर की लक्ष्मी का जन्म हुआ।
गुड़िया छीनकर ,भाई बहन में फर्कं दिखाया।
मां की मदद करना तभी से हाथ में किताबों का
पहाड़ गिरकर अरमानों को चौकें में जलाया।
सौनामी भर्ती रही अंदर ,
रोटी में अपने सपनों के आंसुओ से ,
लाख बार भिगोती रही।
गुड़िया देखकर सपने संजोती रही।
पढ़ने की चाहत को गठरी में बंद सपनों को
फ़ेक दिया।
अब कच्ची उम्र में हाथों पर सवाल की मेहंदी लगाई।
ख़ुशी का ठिकाना ना था रिश्तेदारों की भेड़ बकरियों वाली बातों का शोर गुल में ,
मैं अपने ही ख्यालों में गुमसुम सी थी।
सौनामी एक और अंदर उबाले ले रहा था।
मेहंदी अब खूबसूरत नज़र आ रही थी।
पर उसकी पहचान मेरी नज़रों में एक गन्दी बूं फैला रही थी।
इस दौरान चुन्नी भी ओढ़ा दी गई।
भारी वर्षा सी सर पर ओले का काम करने लगी।
अब दुल्हन का लिबास मेरे दिल को दहला रहा था।
एक ज़िम्मेदारी की गठरी और लाद दी।
सोचती रही मेरी ज़िन्दगी में कौन आ रहा था।
जो जिस्मं मेरा था, ख़ुशी से किसी और की मलकीयत बनने जा रहा था।
अब एक सौनामी और ज़हन में उठ रहा था।
अभी तक मेरे अपनो को बहुत चिंता थी मेरी इज्ज़त की ,
अब सात फेरे होते ही मेरे को किसी और के हवाले कर जिम्मेदारियों से मुक्त हो रहे थे।
अब विदाई हुई और ये एक सौनामी और जगी।
ये समझते हुए भेजा गया।
अपने घर जा बेटी, वहीं तेरे मां बाबा है।
वहीं तेरा संसार, जो वो कहे वहीं करो।
जैसे वो रखे वैसे रहो।
जो करना हो वहीं करो क्यू?
मेरी जान के दुश्मन बने अपने ही मेरे।
अब सेज सजी घर में अलते से घर की दहलीज पर छाप छोड़ी।
उसी सेज पर मेरे सपनों का सौदागर ,
अपनी पहचान बताने लगा।
रोज़ अब मेरे दिल को दस्तक, नहीं दिल देहलता रहा। जिस्मं को रोंदता रहा।
बलिदान की मूरत बन मेरी पहचान ख़त्म कर , ख़ुद को हावीं करवाता रहा।
अब तुलसी को दीपक जगाती ,रोज़ ज़ख़्मो को छिपा कर दूसरो के सामने रोज़ परीक्षा देने खड़ी हो जाती।
सौनामी अंदर देहक रही थी।
सवालों को दिल में लेकर ख़ुद को खरोंच रही थी।
कद में या कणं में ख़ुद को अकेला पाती ,फिर अपने सपनों को आंसुओ में भिगोती,
उसी साड़ी के पल्लू को सर पर रख फिर अपने को कब्रिस्तान में खड़ी लाश की तरह सबके तानों को सुनती।
अब वो सहमी सी रात से डरने लगीं थीं।
याद करती, अपने ख़ून से लटपट हाथों को
जो रोज़ रात को करती थी।
मरती रही तिल तिल जान निकलती रही।
अब थक गई थी वो सौनामी भर कर अंदर
धुट घुट कर ख़ुद को दोषी ठहराया करती अब।
लिखना नहीं आता था उसको आवाज़ रिकॉर्ड करनी सीख ली उसने।
अब आवाज़ को पहचान दी उसने
सौनामी अंदर नहीं बाहर निकाल दिया
उसने डरते डरते बोलतीं रही ,
अपने सपनों को साकार करती रही वो,
अपने अस्तित्व को स्वीकार करती रही।
अब मां बाबा और सबके लिए आवाज़ बुलंद कर बोल पड़ी
औरत हूं, तो क्या हुआ किसी की मलकीयत नहीं,
जिसने चाहा वहीं किया, कभी मेरे से पूछा
ख़ामोशी से इल्तिज़ा भी ना कर पाई।
जिसने चाहा जागींर समझ रोंदता रहा।
तिरस्कार , बलात्कार,भ्रष्टाचार, खिलवाड़ कर तड़पाता रहा ।
ज़हन में पूछा कभी , ज़मीर से आवाज़ ना आयो
सबके मासूम की ज़िन्दगी को खिलौना समझ कर खेला सबने।
पूछो ख़ुद से ,
ख़ुदा के लिए भी एक सौनामी लाओ कौन है,
औरत वस्तुं उपयोग की या जाननी तुम्हारी ?
तुम्हारे पापो की गठरी उसके सर रख
ज़िम्मेदारी तुम्हारी कुछ नहीं?
आप बताओ ज़वाब दो मेरे सवालों का
जो सौनामी अंदर भभकती रही ,
आज तक ना निकली थी,जब तक सब कुछ सेहती रही तब तक सुशील सरगुन थी।
आज वो बोल पड़ी, अब वो बच्चलन बन गई।
बतमीज़ का खिताब भी मिला उसे को अभी तक ,
अब पूंछ लेना ख़ुद के ज़मीर को ज़वाब देना
अब मेरी सौनामी आवाज़ युहीं गूंजती रहेंगी।
तुम्हारे ज़हन को कचोटी रहेगी।
अब उसी साड़ी के पल्लूं को पंखे से बांध वो अपने अरमान लिए लटक गई।
सिलसिला ख़त्म हुआ।
तिल तिल मरने का।
रोज़ हज़ारों लाखों
औरतें यहीं करती है।
अगर उनकी इच्छा का
ख़्याल रखा जाएं।
तो किसी की भावनाओं
को ठेस ना पहुंचे।
तलाकों के सिलसिले
बहुत हुए आम फिर भी
औरत हुई बदनाम क्र्यूं?
दुनियां भर में औरत को
अब मिसाल कायम है।।
फिर भी औरत ही बदनाम क्र्यूं है?