अर्थी का क़र्ज़
अर्थी का क़र्ज़
दे के मेरी अर्थी को डोलीं का नाम,
क़र्ज़ मेरा, मेरे अपनों ने उतार दिया!
पहुँचा जब मेरा जनाजा वहाँ,
नीलाम उसे भी सरे बाज़ार किया!
दे के मेरी..
सजी थी महफ़िल और सेज पिया की!
मेरे साये ने ही मेरा साथ छोड़ दिया!
कर के सौदा हमारा क़र्ज़ मेरी परछाईं ने
मेरा उतार दिया!
दे के मेरी....
भटकते रहे हम दर बे दर दुनिया के कदमों में,
फेर कर नज़र मेरे हौसलों ने,
क़र्ज़ मेरे ज़मीर ने उतार दिया!
दे के मेरी अर्थी....
कहते है मॉं दुनिया की सबसे बड़ी नियामत है!
देख के बेबसी और टूटे सपने मेरे,
मूँद ली आँखें जग से,
मुझ को जन्म देने का क़र्ज़ भी उतार दिया!
दे के मेरी....
सुना था बोझ हूँ मैं अपने बाबुल पर,
फेर ली नज़र करके बेगाना !
क़र्ज़ बाबुल ने भी अपना उतार दिया!
दे के मेरी...
टूट गई कच्चे धागे की जो डोर,
राखी का था जो उपकार!
रुसवा हमें सारी कायनात ने किया!
क़र्ज़ राखी का भी भाइयों ने उतार दिया!
दे के मेरी...
संग खेले थे गुड़िया गुड्डे के खेल ,
सपने संग सज़ाएँ थे!
फिर क्यूं नियति ने सितम ढाये थे!
चूर चूर करकें मेरे वजूद को
क़र्ज़ बहनों ने भी अपना उतार दिया!
दे के मेरी डोली को को अर्थी को डोली का नाम
क़र्ज़ मेरा, मेरे अपनों ने उतार दिया!
प्रस्तुत कविता हरियाणा के छोटे से शहर की मासूम सी लड़की है!बेटी के जीवन को सवांरने के लिए एक मॉं ने
मौत को भी गले लगा लिया! उस मॉं के त्याग को सादर समर्पित!