औरत हूँ मैं
औरत हूँ मैं
लफ्जों से वो ऐसे घायल करते हैं,
ख़ंजर से गहरे ज़ख़्म,
अब उनके लवस करते हैं
विना क़सूर वो हमको गुनाहगार साबित करते है।
की थी जो मोहब्बत हमने,
वो इश्क़ की सजा हमें बार-बार देते हैं।
नज़दीकियाँ हो या फ़ासले बस उनका हुक्म होता है
जैसे क़ैदी हो हम और कुछ देर बेड़ियाँ खोल देते हैं
वो ज़हर देते तो ज़माने की नज़र में गुनाहगार होते
वो टुकड़ों में हम को ज़ख़्म बेशुमार देते हैं।
ये कैसी मोहब्बत की रस्में है
सप्तपदी के वचनों मे क्या मेरी मर्ज़ी को मान नहीं
अपनी ऊँची आवाज़ भी दहशत दिया करते हैं
घर की दीवारों को भी ख़ामोश किया करते हैं।
जैसे सिर्फ़ एक बिस्तर हूँ मैं,
अपनी मर्ज़ी से सौ लिया करते हैं।
मेरे सब्र का इम्तिहान ,
ज़हर का धुंट पिला कर लिया करते हैं।
अब आँखों से आँसू बहते नहीं ,
दिल चीर दिया करते हैं।
अर्द्धांगिनी बना कर लाये थे जो ,
औक़ात बता दिया करते हैं
पुरूष होने का दंभ,
औरत को प्रताड़ित कर पूर्ण किया करते हैं
जाम वफ़ा का था जौ चूर चूर हो गया।
ज़ख़्म औरत होने का अब नासूर हो गया।
ज़िन्दगी में सैकड़ों इलज़ाम है
सौ इलज़ामों का एक ही नाम है औरत हूँ मैं।
