अपवित्र औरतें
अपवित्र औरतें


एक अपवित्र देह से,हे पुरुष!
तुम पवित्र कैसे पैदा हो गए?
तुम्हें जन्म देते ही,
तुम्हारी मां तो अपवित्र हो गई,
फिर तुम पवित्र कैसे रह गए?
औरतों को क्या करना है,
क्या नहीं करना समीक्षा करने वाले
तुम होते कौन हो?
जिसने तुम्हें बनाया, खाना-पीना और
बोलना तक सीखाया ,
उचित-अनुचित का ज्ञान करवाया
उसे चरित्र का जामा तुम पहनाओगे?
तुम हमेशा उन्हें चरित्र की कसौटी पर
सतत कसते रहते हो।
बहुत कोशिश करती हैं स्त्रियां,
कसौटी पर खरा उतरने की
मगर नहीं संतुष्ट कर पाती पुरुषों को।
अनेक उपाधियों से विभूषित होकर,
चरित्र- हीनता का जामा पहनकर,
मान-अपमान का बोझ ढोने को बाध्य हैं।
भजन कीर्तन करती हैं,व्रत उपवास करती हैं
मगर उनके माथे पर जो औरत होने का
कंलक लगा है, उसे धो नहीं पाती हैं।
और सारी उपाधियां जिंदगी भर की,
चिता पर जाकर भी मिटा नहीं पातीं हैं!