अपना शहर
अपना शहर
मेरा शहर कानपुर रोता हुआ शहर हो गया है,
न पनघट की मस्ती है,
न पेड़ो की छाँव है,
हर तरफ धुआं ही धुआं है,
कंधे सबके झुके हुए है,
हर तरफ भृष्टाचार है,
जेबे सबकी भरी है,
और दिल उदास है,
बाप अँधेरे कमरे में पड़ा है,
रूपया बाप बना हुआ है,
न कहीं पक्षियों की चहचाहट है,
सिर्फ हर तरफ मशीनो की हड़बड़ाहट है,
ज़िन्दगी सबकी मशीन बन गई है,
हाँ मेरे शहर की तस्वीर ही बदल गई है ।