अपना घर
अपना घर
सुना बहुत था अपने बुजुर्गों से
बुढ़ापे में जहाँ रहते थे वहीं रहिए
मन कहीं और लगता नहीं
हमने सोचा अरे हम तो
अलहदा तबीयत के है।
बच्चों से भी बनती है हमारी
ठाठ से बच्चों के साथ रहेंगे
अकेले हम क्यों रहें
लंबे रहने के लिए आए थे यहाँ
आराम भी बच्चों ने सब दिए।
डेढ़ महीने में ही
मन उचाट सा होने लगा
वापसी की टिकट कराई
बहाना दवाई का किए
बच्चे रोकते रह गए।
अब क्या कहें उनसे
वो दर वो दरीचा
वो चौखट वो दहलीज
हमे हमारा घर
सब आवाज दे बुला रहा।
हमे अपने बिस्तर का गद्दा भी
याद आ रहा
अपनी गलियाँ, अपना मंदिर
अपना आसमाँ बुला रहा।
यहाँ तो हम पूर्णिमा के चाँद को भी
एक नजर देखने को तरस गए
हाय़ जल्दी से तारीख आए
और हम अपने घर पहुँचे।
सोसायटी की रौनक बहुत है यहाँ
फिर भी ना जाने लगता है क्यूँ
हमको हमारा मोहल्ला बुला रहा।।