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Ravi PRAJAPATI

Abstract

4.5  

Ravi PRAJAPATI

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अपना गांव

अपना गांव

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क्या रक्खा है यारों, धूल भरे इन गांवों में।

बेताब है क्यो आने को, छाले भरे पांवों में। 

पैसा तो मिल जाएगा, शोहरत के दरबारो में।

ममता मिलेगी मगर ये यारों, माता-पिता के पांवों में।


चमक तो मिल जाएगी, चारों ओर दीवारों में।

महक मिलेगी मगर ये यारों, गांवों की गुलजारो में।

मौत तो मिल जाएगी, यारों की तकरारों में।

मगर बहन का प्यार मिलेगा, रक्षाबंधन के त्यौहारों में।


लाख घूम लो यारों, शहर के हर चौराहों में।

मगर शांति मिलेगी यारों, गांवों की पण्डालो में।

दूषित हवा तो मिल जाएगी, शहर की हर राहों में।

मगर चैन की सांस मिलेगी, गांवों की सीवानों में।


चाहे जितना मन बहला लो, शहरों के हर चौबारों में।

मगर अनोखा रुप मिलेगा, घर कि ही दीवारों में।

लाख बना लो रिश्ते, चंद पहेली-बातो में।

मगर सुख पाओगे यारों, भाभी की शरारती बातों में।


लाख बनाया महल अटारी, पैसों की ही लालच में।

मगर काम ये रोड दे रहा, बिगड़ी हुई हालत में।

किल्लत का दिन न होगा, ममता के इस आंचल में।

हर दिन सुख से बीतेगा, ममता के ही आंचल में।

 

मजा लुटना सदा यहां, बड़ों के ही साथो में।

अनुपम अपना गांव है,जो मिला है सौगातों में।

अब छोड़ कभी मत इसको जाना, पैसों की लालच में।

 ये चमक दमक फीकि होगी, ऐसे ही हालातों में।




  


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