अन्तर्मन की जंग
अन्तर्मन की जंग
हर रोज जूझती हूँ,
एक जंग से,
बाहरी दुनिया से नहीं,
अपने भीतर की दुनिया में,
अपने अन्तर्मन की जंग !
महसूस करती हूँ,
जिन कहानियों को,
और कह नहीं पाती,
उन्हें कह पाने की जंग !
चले आते हैं जो विचार,
मेरे जेहन में,
और मूर्त नहीं कर पाती हूँ,
मूर्त कर पाने की जंग !
मेरी आंखों के आगे,
भटकते वो चरित्र,
जिनका चित्रण नहीं कर पाती हूँ,
चित्रण कर पाने की जंग
मेरे दिल के वे एहसास,
जिन्हे शब्द नहीं दे पाती हूँ,
उन शब्दों की जंग !
हर रोज जूझती हूँ,
अपने इस अन्तर्मन की जंग,
पर हौसला नहीं हारती हूँ,
उम्मीदें नहीं हारती हूँ !
हो जाती हूँ हर बार नाकाम,
पर कोशिशें नहीं हारती हूँ,
सपने नहीं हारती हूँ,
जिन्दगी नहीं हारती हूँ !
और फ़िर हर रोज जूझती हूँ,
अपने भीतर की जंग
अन्तर्मन की जंग !
