अंतर्मन की भीड़
अंतर्मन की भीड़
अंतर्मन में जाने कितना शोर है।
कितनी भीड़ है अपूर्ण इच्छाओं की।
एक तरफ जमा पड़ा है अपनों का धोखा
तोड़ गए विश्वास जो पाते ही मौका।
यूं ही तो सब कुछ नहीं भूलने लगी हूं मैं,
याद करके दुखी ना होऊं इसलिए
सब कुछ छोड़ने लगी हूं मैं।
सबसे दूर खुद को ही प्यार करने लगी हूं मैं।
अपने आप को मनाते मनाते,
यूं ही अकेले में मुस्कुराते खिलखिलाते ।
जीवन में बहुत कुछ खोते और बहुत कुछ पाते
अपने आप को समझने लगी हूँ मैं।
लोग सोचते हैं सब कुछ भूल गई हूं मैं।
इसलिए नए-नए प्यारे रूप में है आते ।
क्योंकि खुद को ही प्यार करती हूं मैं
इसलिए उनसे भी मिलती हूं मैं मुस्कुराते मुस्कुराते।
लेकिन कभी-कभी शांत हो जाती हूं
मैं अपने अंतर्मन के साथ।
क्योंकि परमात्मा पर है पूर्ण विश्वास।
मेरे अंतर्मन के किसी कोने में वह उजाला करते हैं।
मेरे नए नए सपनों में वह नित नए रंग भरते हैं।
कोई हो या ना हो फर्क पड़ता ही कहां है?
मैं जहां हूं मेरा परमात्मा भी वहां है?
अपनों का परायापन भी मुझे दिखता है कहां है?
