अनंत सवाल
अनंत सवाल
पढ़ो मेरी आँखों में अनंत सवाल मैं गौहर सी मूल्यवान शून्य में ही मंडराती रही,
पीड़ की रीढ़ पसीजते गल चुकी है।
बेटी बन क्या जन्मी चिंता का भार ही बनी खिली कभी नहीं बस मिटती चली,
हमारे पदचिन्ह क्यूँ मिटा दिए जाते है।
हमारा प्रश्न काल बहुत लंबा चला हर बात का हल होता है,
हमें क्यूँ सदियों से विमर्श की तुला पर बिठाया है।
परोसी गई शब्द जाल में लपेटकर भोग ही लगा हर सदी में,
कभी एक कौर आज़ादी का चखने नहीं मिला है।
हर किसी को मुखर नारी भाती है बशर्ते अपनी नहीं दूसरों की,
क्यूँ ब्याहता को मौन का मुखौटा पहनाया जाता है
धूमिल पथ ही मिला क्या हम विस्तृत नभ की हकदार नहीं,
संसार का सारांश है हम पर परिचय कितना लघु रहा है।
बहुत हुआ उनींदे वजूद को अब नहीं ढोना,
अलसित व्योम से चिंगारी चुनकर हमें शिखाओं में आग भर जाना है।
गढ़ती जो पहले ही पन्ने पर सस्मित सपनों की बातें,
आज तारों में प्रतिबिम्बित होती हमारी भी रातें।
मूक वीणा में संगीत भरकर अंतर्धान हौसलों को जगाना है,
लौटेगा निर्वाण कभी लघु से वजूद को विराट बनाना है।