अनदेखे ख़्वाब
अनदेखे ख़्वाब
पर्दों के पीछे छिपे थे वो नज़ारे
कहाँ थी मैं और कहाँ मेरे सपने
लगा बस पास ही है पहुँचने वाली हूँ
कभी पास तो कभी दूर
कभी छू पाई तो कभी देख न पाई
हर दिन निकला एक गहरी रात
लगा कभी तो बत्ती जलेगी
और महसूस कर पाऊँगी
उन सपनों को
छूकर, पकड़कर, उठाकर, गले लगाकर
लेकिन ज़माने को कुछ और ही मंज़ूर था
भटकती रही हर पल हर कोने
लगा सपने पूरे करने के लिए आग पर चलना पड़ेगा
और चली भी
एक दिन उसी आग ने मुझे अंधेरे से बाहर निकला
रौशनी दिखी, चमक दिखी
हर कदम मदद, सहारा मिला
सपनों का हाथ थामे करीब पहुँचती गई
और लगा ये तो कितना आसान था
मेरे सपनों में ही मेरे जवाब थे
आँखें खोली, मन के अंदर झाँका
अपने सपनों को जिया
और यही थी मेरी अनदेखे ख्वाबों की कहानी