अमानत हूँ
अमानत हूँ
चाँद क्यों रात को बादलों में छिपा कुछ भी नहीं
रात घूँघट ये ज़रा सा तो हटा कुछ भी नहीं।
मैं अमानत हूँ तेरी या के बता चाहत बनी
मिली चाहत मुझे पाकर के पता कुछ भी नहीं।
ज़िन्दगी मैंने तो कर दी थी मगर तेरे हवाले
दिल के मालिक तू समझ जानें बिना कुछ भी नहीं।
तुम हो जाओगे ख़फ़ा अब सौ दफ़ा आदत तेरी
हो गया गर तू ही एक बार जुदा कुछ भी नहीं।
याद आकर के तेरी ख्वाब हसीं दिखा गई
प्यार खुशबू ले के आया तो हुआ कुछ भी नहीं।
प्यार पर बस तो नहीं किसी का लेकिन फिर भी
ख़ुद तबस्सुम से वो अपने जगा कुछ भी नहीं।
ज़िन्दगी तुझे फिर क्या लिखूँ अजीब क़िस्सा है
आगे नफ़रत के तो चाहत का नशा कुछ भी नहीं।
आज रिश्तों की अहमियत को शिकायत समझे
जो जताया नीतू ने उससे तो निभा कुछ भी नहीं।
गिरह
ज़िन्दगी तेरी कशमकश में उलझ कर रह गए
मेरे हुजरे में किताबों से सिवा कुछ भी नहीं।