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Vibha Sharma

Abstract

5.0  

Vibha Sharma

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मुकम्मल जहान

मुकम्मल जहान

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पहली साँस ली थी जब 

माँ की गोद पायी थी तब,

पहली झलक में माँ को ही

अपना जहान बनाया था,


चलने लगा फिर

कारवाँ जिंदगी का,

हर साँस से बनता गया 

यह जहान ज़िन्दगी का।


एक एक अक्षर से सीखे शब्द बनाने

बनाते बनाते शब्द सीखे वाक्य बनाने,

बढ़ते गए फिर इन वाक्यों के ताने बाने,

बाहर आकर माँ के जहान मे देखा

एक नया  जहान मैंने पाया।


फिर तेरा- मेरा शुरू हुआ,

फिर नया - पुराना शुरू हुआ,

फिर सस्ता - महंगा शुरू हुआ,

फिर अपना - पराया शुरू हुआ।


इस दौड़ में शामिल हो गए सब,

सब रिश्ते नाते बिगड़ गए,

सब दोस्त पुराने बिछड़ गए।


हासिल करना था मुक्कमल जहान

न पता था वो रास्ता है कहाँ।

सोते -सोते भी ध्यान रहे

दफ्तर का न कोई काम रहे।


माँ लक्ष्मी की गिनती में

बस हर दम मेरा ध्यान रहे।

माँ की मुस्कान पिता का प्यार

बहन की शरारत भाई क

ा दुलार,


सब भूल चुका था इस पल में

सब धुंधला गया था पैसों की धूल में।

क्यों, क्योंकि मन को इक

इक नई दुनिया बनाई थी।


नहीं जीना उस  जहान में

जो अपने आप में अधूरा था,

मुक्कमल जहान बनाने का

करना सपना पूरा था।


उस दौड़ में शामिल हो गया मैं,

जिसका न कोई अंत था,

जिसका ना कोई मूल था,

जिसका न कोई मंत्र था,


ऊंचाइयों के चक्कर में

आखिर हार कर एक दिन

बैठ ही गया थककर मैं,

फिर गहरी सी एक चोट उठी


जब देखा अपने आसपास,

न नज़र प्यार की एक दिखी

फिर सोचा यह क्या हुआ

क्यों न बना पाया मुकम्मल जहान।


जो  जहान मैं पीछे छोड़ आया

उस सोच ने मुझे समझाया,

जो था अपना वो अपने आप गवाया

देखा जब देखा पीछे मुड़कर

उस जहान को मुकम्मल पाया।


जिसमें ख़ुशी से जीना था 

मैं सारा समय गवाँ आया

मैं सारा समय गवाँ आया।


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