अलग थी मैं...!
अलग थी मैं...!
मैं कभी तुमसे दूर नहीं हुई
तुम्हारे पास रही सदा
कभी तुम्हारे शब्दों में
कभी तुम्हारे द्वारा खींचे गए हाशिए के बाहर
कभी घर के किसी पात्र में भरी रही
तो कभी तुम्हारे ख़ुशी और ग़म में
छलक पड़ी अश्रु की दो लडी बनकर
तन्हा जब कभी बैठे छत पर
किसी गहरी सोच में डूबे हुए तो
तारों की तरह टिमटिमाती रही
आसमां में तुम्हारे सिर के ठीक ऊपर
हर वक़्त तो रही तुम्हारे करीब
बस ना साथ था हमारा ना नसीब
क्यूँकि..
हाथों की लकीरों में नहीं थी मैं..!
किन्तु...
बावजूद इसके
तुमने मुझे अमर कर दिया है
अपनी कविताओं में शब्दो में पिरोकर ...
और क्या चाहिए कि..
लोग जब भी तुम्हें पढ़ेंगे मुझे तुम्हारे साथ देखेंगे।

