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संजय असवाल "नूतन"

Abstract

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संजय असवाल "नूतन"

Abstract

ऐसे तो न सोचा था

ऐसे तो न सोचा था

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जिंदगी में दुश्वारियों को

ढोते ढोते

अब यकीन 

होने लगा है मुझे

जिदंगी जितनी आसान नजर आती है

उतनी होती नहीं,

और मैं

जी रहा हूं 

अपनों के लिए

कोई कटु सत्य

जो सच जैसा दिखता है पर है नहीं,

जीवन के हर मोड़ पे

उलझनों से उलझते

सुबह से शाम तक 

चिंताओं की लकीरें 

माथे पर बल 

पैदा करने लगती हैं,

उलझनें 

हाथों की लकीरों में

फंसी फंसी

धागे की गांठों की तरह

शाम होते होते

उलझने से पहले

सुलझती 

फिर धीरे धीरे से

उलझने लगती है,

इन मुश्किलों में

मैं खुद को ठगा

वहीं पाता हूं 

जहां से मैं चला था,

रूह भी मेरी 

अब आवाज देने लगी है

पांव उखड़ रहे हैं 

सांसे भी 

कभी कभी होने का 

अहसास भर याद दिलाती है, 

जानता हूं

अभी बहुत काम बाकी है

मुश्किलों से 

अभी रूबरू होना बाकी है,

असली जिदंगी तो बस 

अभी शुरू हुई है

जिंदगी का मुकाम बाकी है,

अपनों का प्यार 

अपनों की तकरार 

और एक लम्बी उड़ान 

जो बस ख्वाबों में ही

सिमट कर रह गई है,

और ये खामोशी भी

जो बेपर्दा थी

अब अच्छी लगने लगी है

शायद उससे ही पुराना याराना हो, 

बस सोचता हूं 

कभी कभी 

या सोच कर भूल जाता हूं 

जिंदगी के उतार चढ़ाव की

हर बारीकियों को

ऐसे तो न सोचा था 

जिंदगी को लेकर।



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