ऐ नदी, तुम्हें नमन !
ऐ नदी, तुम्हें नमन !
ऐ नदी..!
तुम्हारे तट तक आना
यूँ ही, अकारण नहीं
कारण की खोज भी व्यर्थ
इस सामिप्य और सानिध्य को,
सार्थक करें..!
कभी मुस्करा कर
कभी नया कोई गीत गा कर,
कुछ बातें,
देर से अच्छी लगती हैं,
कुछ इंसान देर से समझ में आते हैं
हम अपनी समझ
जबरन किसी को दे नहीं सकते
पर..
समझ संभाल तो सकते हैं।
तुम तो ऊसर ज़मीन को भी
उर्बरा कर देती हो,
जिन्हें
यह पता नहीं
कि..
आखि़र उन्हें
चाहिये क्या..?
उन्हें भी
तुमसे
बहुत कुछ मिल जाता है।
ख़ैर..
जाने दो
ये बेकार की बातें..!
कोई
कुछ नहीं यहाँ,
वरना
मानो तो
सब
सब कुछ..!
तुम नहीं समझोगी...
अच्छा होना
कितना बुरा होता है
विशेषतः तब
जब अच्छा होना
एक लत में परिणत हो जाए।
नहीं समझोगी,
मैं भी कहाँ समझ पाई हूँ..!
मगर..
तुम बाज़ नहीं आओगी
कि..
तुम्हारी नियति है
परहित..!
उफ़्फ़्फ़..!
ये नदी भी न..!
कभी -कभी
कर लेती है
अपना
पथ - विस्तार
इतना जैसे
ब्रह्मनाल..!
छोड़ो, मुझे कुछ नहीं कहना है,
ख़ासकर
तुम्हारे पथ विस्तार के प्रयोजन की कथा
क्योंकि यह
मेरी क्षमता के बाहर है
तुम्हें नमन है..!
बस..
और क्या..?