ऐ मन, ये बता तेरे मन में क्या है?
ऐ मन, ये बता तेरे मन में क्या है?
ऐ मन, ये बता तेरे मन में क्या है ?
मस्तिष्क का कहना क्यों नहीं मानते
अपनी ही ज़िद पर क़ायम रहते हो
नटखटी के सदा नियम बनाते हो ?
ठीक है मन के हारे हार है,
मन के जीते जीत
पर हर बार तुम अपनी ही चलाओ
ये तो ठीक नहीं है रीत !
तुम दोनों मिल के बात क्यूं नहीं करते ?
कोई बीच का रास्ता ईजाद क्यूं नहीं करते ?
ऐसा करके देखो तो,
अब जो भी करोगे तुम
उसे कोई मनमानी नहीं कहेगा।
कुछ भी कहने से पहले अब
सारे पहलुओं पर गौर ज़रूर करेगा।
ऐ मन यह कैसी रफ्तार है तुम्हारी,
ज़रा धीमे चलो।
तुम दोनों ही शरीर के हिस्से हो,
उसे पीछे तो न छोड़ो।
मत भूलो रफ्तार कभी
दुर्घटना ग्रस्त कर सकती है,
बिना लगाम के घोड़ी की
मंज़िल कहाँ पहुंचती है ?
मेरा कहना तुम दोनों से है,
मिलकर कोई इंसाफ करो,
अपनी गति कुछ धीमी करके,
उसको भी ले साथ चलो।
तुम सोचोगे कितना जुल्म है
मुझ पर भी तो रहम करो,
उस कछुए मस्तिष्क को भी तो
तेज़ करने अपने कदम कहो !
कैसे समझाऊं मन तुम्हें मैं,
वो ऐसे ही नहीं ऊपर बैठा
अश्व चाल का ज्ञान उसे है,
तभी तो है वो इतना ऐंठा।
फिर भी तेरे कारण मैंने,
कर लिए अपने कर को बध,
तुम दोनों से निवेदन यह है,
ज़िद को अपनी कर दो रद्द
मिल कर काम करने से शान बढ़ेगी,
आपस में जुड़ गये तो पहचान बनेगी।