अहंकार के साम्राज्य का पतन
अहंकार के साम्राज्य का पतन
अहंकार है विष जीवन का, अहंकार पतन की पराकाष्ठा है,
अहंकार का प्रवेश द्वार, केवल विनाश की ओर ले जाता है,
यही बात तो वो अभिमानी रावण कभी समझ ही ना पाया,
अपने विनाश हेतु स्वयं उसने अंहकार का साम्राज्य बनाया,
ये कहानी है क्रोध और अहंकार में चूर लंकापति रावण की,
जिसने स्वयं अपने हाथों से खुशियांँ छीनी अपने दामन की,
ज्ञानी था, ध्यानी था, बलशाली वो शिव भक्त था वो महान,
अपनी शक्ति, अपनी भक्ति पे घमंड करता था बड़ा नादान,
महादेव को भी कैलाश सहित उठाने को वो तैयार घमंड में,
ईश्वर से नहीं है बलवान वो, समझ ना सका अपने अहम् में,
दिन प्रतिदिन उसके अहम् का साम्राज्य होता गया विस्तृत,
जिसके गहन अंँधकार में, उसकी आत्मा भी होती गई मृत,
अपने दंभ में आकर रावण ने, माता सीता का किया हरण,
सोच भी ना सका वो अभिमानी, मौत का कर रहा है वरण,
प्रभु श्रीराम की महिमा और शक्ति का उसे था ना आभास,
ऐसा घृणित दुस्साहस किया कि निश्चित था उसका विनाश,
पत्नी मंदोदरी और भाई विभिषण ने, बहुत उसे समझाया,
लौटा दो सीता को,किन्तु उसके सर पे थी अहम् की छाया,
लाख समझाने पर भी किसी की बात सुनने को नहीं तैयार,
विनाश काले विपरीत बुद्धि,यह बना उसके जीवन का सार,
जलकर खाक हुई सोने की लंका फिर भी रावण ना रूका,
अपने अहंकार की आग में, अपने वंश को भी झोंक दिया,
युद्ध के सिवाय श्री राम के पास अब नहीं बचा कोई रास्ता,
फिर युद्ध हुआ भीषण श्रीराम रावण में रावण दिखा हारता,
एक-एक कर सभी परिजन पुत्र भाई युद्ध की बलि चढ़ गए,
मान मर्यादा ज्ञान ध्यान भक्ति सब दंभ के सागर में बह गए,
श्रीराम के हाथों अंत हुआ, रावण और उसके अहंकार का,
ख़त्म हो गया अहम् से बना साम्राज्य रावण के संसार का,
मुक्त हो गई माता सीता मुक्त हुई लंका रावण अत्याचार से,
रावण ने खुद अपने वंश का नाश किया, अपने व्यवहार से,
अहम् का साम्राज्य जब विशाल रूप में परिवर्तित होता है,
तो उस साम्राज्य का नाश करने श्रीराम रूप कोई धरता है।