अधूरे अल्फाज़
अधूरे अल्फाज़


वही शाम वही दिन
वही दिन भर की मशक्कत
कब बदलती गई मैं
बदल गए कितने सुर कितने साज़
हालात ने इस कदर तोड़ा मरोड़ा है मुझे
न जाने कितनी रातों की सिसकियाँ
आवाज़ देती हैं मुझे
जब भी सोचती हूँ कुछ कहने को
होंठों को सिल लेते हैं अधूरे अल्फाज़...
स्त्री हूँ, घर की लक्ष्मी भी हूँ
पत्नी हूँ, माँ भी हूँ
मगर मैं.. मेरी कौन हूँ?
अपने अस्तित्व को जब कभी
आईने में तलाशना चाहा
कुछ कतरे अश्कों के गिरे होंठों पर
वहीं ठिठक गये मेरे अधूरे अल्फा
ज़...
घर का सम्मान हूँ, सबकी जान हूँ
पर मेरी जान का क्या ?
परिवार से इतर मेरी पहचान का क्या ?
कलम है कागज़ भी
कुछ लिखना जायज़ भी
मगर क्या लिखूँ, मैं कौन हूँ ?
क्या फर्क पड़ता है, मेरी पहचान क्या है ?
बस एक स्त्री....बदलते रूप में
बेटी से माँ तक का सफर
दर्द से मातृत्व तक का सफर
इस सफ़र में मेरा “मैं" कहीं खो गया
ये ज़िन्दगी न जाने क्या होकर रह गई
कलम उठाती हूँ, तो सहम जाते हैं
कलम की नोंक पर ठहरे हुए अघूरे अल्फाज़।