दीप प्रेम का
दीप प्रेम का
उनको मसि बना कर पलको में बंद कर लूँ
उर की तमाम बतियाँ मैं पी के संग कर लूँ
बाहों में उनकी मचलूँ जैसे जलज मछुरिया
अंधरों पे फिर अंगारे उनके अधर के धर लूँ
पिघलूँ मैं जैसे पर्वत की हिम पिघल रही हो
लहके बदन कि जैसे डाली लचक रही हो
आँचल सरक सरक के कांधे से ढलता जाए
महके ये अंग जैसे जूही महक रही हो
उनमें समा के जग के बंधन मैं तोड़ डालूँ
जन्मों जन्म का उनसे सम्बन्ध जोड़ डालूँ
बन कर मैं निर्झरा सी उदधि में फिर समाऊँ
जो रोकती हैं मुझको कड़ियाँ वो तोड़ आऊँ
आवेग अब मिलन का कैसे भला रुकेगा
झंझा ये भावना का उत्कर्ष तक उठेगा
ये भाव जो उदित है हम उसमे डूब जाए
ये दीप प्रेम का अब मृत्यु तलक़ जलेगा।