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Sheetal Raghav

Abstract Tragedy

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Sheetal Raghav

Abstract Tragedy

अब कहां अतिथि देवो भवः ?

अब कहां अतिथि देवो भवः ?

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रात को डोरबेल,

अचानक बजी,

जब देख रही थी,

फिल्म मै मनचली,


मनचली देखते-देखते

डोर बेल का यूं बज जाना,

कर रहा था, बेचैन मुझे,


कोरोना काल,

में किसी का,

यूं घर आ जाना,



खोला दरवाजा तो,

भगवान थे,

सचमुचच वाले नहीं,

वह तो मेहमान थे,



अनमने मन से,

नमस्कार करना पड़ा,

बिना अंदर आने को कहें, 

वही दरवाजे पर,

ही हाल-चाल पूछना पड़ा,


अच्छा तो,

नहीं लग रहा था,

बिना पूछे,

यूं बड़ी जीजी की तरह,

दरवाजा रुकाई करना,


पर क्या करूं,

यह मौसम की जरूरत थी,

उसको अंदर ना आने देना,

मेरी मजबूरी थी,


वह भी हस्तप्रद हो,

मुझे देख रहा था,

मैं अंदर आ जाने के लिये कहूं ! 

इसलिए जीजी का, 

मन टटोल रहा था,


कैसा वक्त आ गया,

जब मेजबान ,

पानी के लिए भी नहीं,

पूछ रहा था,


हाय रे ! भगवान,

कैसी नियत है, तेरी,


जहां अतिथि देवो भवः,

वहां बिना आवभगत किए,

भगवान को दरवाजे से ही,

लौटना पड़ा, 


वाह री तेरी माया !

सब कुछ जहां में,

उलट-पुलट कर डाला,


अब तो ना रही,

गले में कंठी,

और ना ही,

रही स्वाभिमान की माला।।


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