आत्मा
आत्मा
साँस रूक चुकी थी
देह जल रहा था
रिश्तेदार जा चुके थे
बस थी, वो आत्मा।
लाल चिंगारियों से भरी
लकड़ियों के बीच, लेटे उस देह को
देख रही थी।
जो कल तक उसका था
जिसमें वो रहती थी
वो देह जल रहा था।
जो उसका अस्तित्व था
इस दुनिया के नाम, वो
जल रहा था।
भरी श्मशान में
अंधेरी रात में
वो अकेले जल रहा था
ना अपना था, ना पराया था
बस थी, वो आत्मा
जलते लकड़ियों के पास
बैठी थी, सोच में
क्या था उसका
ये देह भी तो ना था उसका
सब जा चुके थे
न भाई , न बेटा, न भतीजा
न मां, ना पत्नी ,ना बेटी
कोई भी तो नहीं था
इस भरी श्मशान में, उसका
साथ देने को, उसके साथ बैठने को
उसके देह को जलते देखने को
कौन था?
तो क्या है उसका अस्तित्व?
एक दिन अकेले रह जाना है
एक दिन चले जाना है
एक दिन जल जाना है
एक दिन राख बन जाना है
और एक दिन सब भूल जाना है
शायद यही है
उसका अस्तित्व
और
शायद हमारा भी
बस आत्मा रह जाना।